दर्द कम कर दे..!

तू मेरा दर्द ज़रा कम कर दे
आ मेरा क़त्ल, बे-रहम कर दे

ऐसे लूटा कि कुछ बचा ही नहीं
ग़र बचा है तो वो सितम कर दे

जाने क्यों तुमको तराशते हैं हाथ
आख़िरी बार फिर क़लम कर दे

हम तो हैं सब्र-तलब, ख़ौफ़-ए-उदू तुमको है
सब ग़ुनाह नाम मेरे लिख के उजागर कर दे

इतना बरसाओ अब्र अबकी बार
सुर्ख़ से सब्ज़ हर सुख़न कर दे

तेरी तस्वीर सूख जाएगी
आँख की कोर ज़रा नम कर दे…

ख़्वाहिश

कितनी ख़्वाहिश लिए बैठा हूँ मैं
कि और इक बार, मैं बिखर कर उठ तो सकूँ
कि मेरे पैरहन पर अटके हुए कुछ धागे
कहीं ज़मीं पे फिर से गिर ना पड़ें
कि मेरे होंठों पे ठिठके से कुछ शेर
कहीं छलक के कुछ कह तो सकें

 

कि सूखे फूलों की तरह मिल जायें कुछ लम्हे
और महक जायें उन ख़तों की तरह
तुमने लिखे थे मुझे जो सालों-साल
फिर हर चेहरे में तुमको ढूँढने की
कितनी ख़्वाहिश लिये बैठा हूँ मैं

 

कि कभी कोई चौक कर देखे मुझे भी
या किसी की आँख में मेरा भी इंतज़ार मिले
कि उसी घर में जहाँ हमने बुने थे ख़्वाब कई
तुम्हारे आग़ोश में गुज़रे थे जहाँ सालों-साल
या गली की मोड़ पर फिर से मिलो और
दौड़कर मुझसे लिपट जाओ इस क़दर कि
कोई भी दीवार अब ना दरमियाँ हो पाए कभी

 

कि कभी माहताब को छुपा के रख दूँ कहीं
रात के आख़िरी पहर के लिये,
तुम्हें महसूस करने को, पिघलकर तुम में मिलने की
कितनी ख़्वाहिश लिये बैठा हूँ मैं ….

यादें..!

यादों ने ज्यों डेरा डाल रखा है

नींद… जागती रहती है अब

वक़्त के चरखे पर कुछ ख़्वाब कत रहे हैं जबसे

रूठ गयी थी रात कभी जो, लापता सी रहती है अब

शाम मिली थी, बोझिल सी थी, उखड़ी उखड़ी

आज गले लगकर उसको बहलाया आया हूँ

सुबह को फिर एक बोसा और दो थपकी देकर तरर

सूरज वाली छतरी दे फुसलाया आया हूँ

ख़्वाहिश की डलिया भी कुछ ख़ालीख़ाली है

ठहरी सी धड़कन को कुछ टहलाया आया हूँ

चाँद जहाँ पर धुलाधुला सा, चुपबैठाथा

बारिश के कुछ रंग वहीं छलका आया हूँ

आँख के नक़्शों पर जो धूल जम गयी थी कब से

झाड़पोंछकर उनको फिर चमका आयाहूँ

ओढ़ रज़ाई, बचपन तक फिर दौड़ गया था

सूखे पौधों को फिर पानी दे आया हूँ

सूखा पेड़

गली के आख़िरी छोर पे
कितने अरसे से ताकता रहा
लोग आए गए, वक़्त के कारवाँ गुज़रे
बे-नुक़्ताचीनी, सबको छांव बाँटता रहा

चुन्नू-मुन्नू, अब्दुल-असग़र, धूम धड़ाका-धमाचौकड़ी
चोर-सिपाही, गुल्ली -डंडा
सलमा की गुड़िया ने चुनियाँ के गुड्डे के साथ
यहीं पर शादी की थी
मैंने भी तो बारात में बेर खाए थे

नत्थू दादा, छल्दू कक्का
ताश, अलाव, गुड़गुड़ हुक्का
बनवारी की मालिश, झब्बे की गप्पों के बीच
जाने कितने मसले सुलट गए थे इसके नीचे
शायद ठंडी छांव में कोई जादू सा था

ऊँचे मकान से देखा था जब आज
तेज़ धूप थी, छांव नहीं थी
चार कन्धों पे लिए जा रहे थे कुछ लोग
टूट गया था कोई बरगद शायद
काश .! मैं नीचे उतर कर मिल सकता उससे

क्यों…?

उड़ता- फिरता सा रहता है
मन क्यों भँवरे सा रहता है?

कल तक वो जो हमसाया था
क्यों बेगाना सा रहता है?

बरसों बीते बिछड़े फिर भी
मुझ में तुम सा क्यों रहता है?

जब भी हम तुम मिल जाते हैं
अफ़वाहों सा क्यों रहता है?

आँखें तो सब कह देतीं पर
धुँआ-धुँआ सा क्यों रहता है?

पैसे वालों की बस्ती में
सन्नाटा सा क्यों रहता है?

सागर पर बादल ही बादल
खेत आग सा क्यों रहता है?

बाग़ों में बसंत झरते, पर
आंगन सूना क्यों रहता है ?

मॉं…

जब भी बेहिस होता हूँ, उकता जाता हूँ
तब मैं अपनी माँ के पास चला आता हूँ

मेरी सुबह बना देने को, अपनी रात जला देती है
अपनी धोती के फ़ाहे से, आँख का तिनका बुन लेती है
काजल के एक टीके से वो, दुनियाँ भर से लड़ लेती है
टोटका- टोना, नज़र-बिलोटा, माँ सब जादू कर लेती है

लाल मिर्च और राई नमक से, सारे दर्द जला देती है
घी- गुड़ से पूज पूज कर, नीम भी मीठी कर देती है
नए घड़े का पानी पाकर तुलसी जैसे इठलाती है
पूजा वाली थाली जैसे अहो भाग्य पर इतराती है

सर से छांव नदारद कब से, धूप और चढ़ती जाती है
इतने पैर पसार लिए हैं, चादर कम पड़ती जाती है
कितने बोझ लिए फिरता हूँ, हर दिन गिरता हूँ- उठता हूँ
सपनों की साज़िश में फँसकर, हर पल ख़ुद को ही ठगता हूँ

जाना कहाँ ? कहाँ जाना है, चलना है.. चलता जाता हूँ
मुट्ठी जब भी खुल जाती है, ख़ाली हाथ यही पाता हूँ
जब भी बेहिस होता हूँ, उकता जाता हूँ
तब मैं अपनी माँ के पास चला आता हूँ …

उफ़्फ़…

तुम इतने बेरहम नहीं हो सकते
ये माना के दूर बैठे हो आसमानों में कहीं
या कहीं और से फिरा रहे हो मंतर
शायद हो कोई और खेल रचने पर तुले

कितनी रातों के जागे है ये बच्चे
कब से बैठे हैं पेट बाँधे हुए
आग पर पानी पकाने बैठीं है माँयें कितनी
देर हो… तो शायद ये सो जाएँ

तुमने सैलाब क्यों ला दिया ऐसा
इसमें इनका क़सूर क्या ? कैसा ?
बाँध, बिजली, कारख़ाने और ऊँची कोठियाँ
इनकी नहीं हैं…
और जिनके चमचमाते मंदिरों में तुम पड़े हो,
जिनकी क्रिस्टल की कटोरी में मिठाई से सने हो
ये उन्हीं बेग़ैरतों की भूख से है, प्यास से है

कुछ ना देकर, सब नहीं ले सकते
तुम इतने बेरहम नहीं हो सकते

Written during my travel to flood affected areas in Bihar

मौत कई बार मेरे पास आके लौट गयी..!

मैं भरी बज़्म में बैठा रहा यूँ सज़दा-ज़दाँ
बहार-ए-वस्ल कई बार आके लौट गयी

किसी मकान की टूटी हुयी छत सा हूँ मैं
बूँद आयी मगर, दरार लेके लौट गयी

रात आयी थी एक उम्मीद के साथ
सहर के साथ वो, क़रार लेके लौट गयी

मुनसलिक थी किसी मरासिम से
आज वो याद भी एक बार आके लौट गयी

मैं घर से निकला था ख़ुशी लेने
तमन्ना फिर से ऐतबार लेके लौट गयी

ना जाने और कितने दर्द अभी बाक़ी हैं,
मौत कई बार मेरे पास आके लौट गयी

ज़िंदगी तू चीज़ क्या है ..?

कितनी क़िश्तों में गुज़ारी,
कितनी बे-ख़्वाहिश गयी
ज़िंदगी तू चीज़ क्या है ..?
अब तो समझा दे मुझे

ना कभी कोई शिक़ायत,
ना कभी कोई ग़िला
क्यों नहीं मेरी हुयी तू ?
अब तो बतला दे मुझे

धूप भरी चट्टानों जैसा,
कितना लम्बा रस्ता है ?
कौन डगर मंज़िल पहुँचेगी..?
अब तो बतला दे मुझे

तह कर-कर के रख लेता हूँ,
रात तुम्हारी यादों की
काँधे पर जो चाँद टिका है..
अब तो दिखला दे मुझे

गवाँ चुका हूँ सारे मोहरे,
रिश्तों की शतरंजों के
जीत सकूँ एक दाँव आख़िरी..
अब तो सिखला दे मुझे

दर्द कम कर दे..!

तू मेरा दर्द ज़रा कम कर दे
आ मेरा क़त्ल, बे-रहम कर दे

ऐसे लूटा कि कुछ बचा ही नहीं
ग़र बचा है तो वो सितम कर दे

जाने क्यों तुमको तराशते हैं हाथ
आख़िरी बार फिर क़लम कर दे

हम तो हैं सब्र-तलब, ख़ौफ़-ए-उदू तुमको है
सब ग़ुनाह नाम मेरे लिख के उजागर कर दे

इतना बरसाओ अब्र अबकी बार
सुर्ख़ से सब्ज़ हर सुख़न कर दे

तेरी तस्वीर सूख जाएगी
आँख की कोर ज़रा नम कर दे…