कृष्ण हो तुम

मेरा कृष्ण

प्रेम के लिए राधा -कृष्ण से अधिक कोई उदाहरण नहीं , मित्रता के लिए भी कृष्ण और सुदामा के उदाहरण दिये जाते हैं । कृष्ण कर्मयोगी भी हैं – और प्रेमी भी हैं। लेकिन दूसरों के और समाज के हित साधते- साधते मेरा कृष्ण सदैव अपने द्वंदों में उलझा रहा.. जिसने जन्म दिया – उस से ही दूर रहना पड़ा, जिसको प्रेम किया – ऐसा किया कि युगोपरांत भी विश्व उसका अनुकरण करना चाहता है- हर प्रेमी उस सा बनना चाहता है – लेकिन कृष्ण को अपना प्रेम भी ना मिला । समस्त सृष्टि का पोषण और रक्षण करने वाले को अपने माता-पिता की सेवा, रक्षा का सुयोग पुण्य ना मिल सका । विवादों- विरोधाभासों ने कभी साथ नहीं छोड़ा परन्तु मित्रों के लिए, उसका हाथ – उसका कंधा सदैव आगे रहा ।

समय की परिस्थितियों से जूझते-लड़ते सुदामा, युधिष्ठिर और अर्जुन जैसा कोई परास्त पुरुष तुम्हारे पुकारने पर आकर टूट गया हो और बह गया हो, फूटफूट कर… तो कहना कि संसार के सबसे गहरे मित्र होने के पात्र हो तुम- कृष्ण हो तुम !

अपने जीवन की जटिलताओं से जूझती – टूटी हुई द्रोपदियों में से किसी ने यदि तुम्हारे कंधे पर सर रख दिया हो कभी चुपचाप, तो संसार के सबसे भरोसेमंद पुरुष हो तुम, कृष्ण हो तुम !

सारी दुनियाँ के विरोध के बावजूद अगर अपने मित्र के साथ आख़िरी साँस- आख़िरी क्षण तक खड़े हुये मित्र हो तुम – कृष्ण हो तुम !